Saturday 12 October 2013






उन कस्बों मे...
कठपुतलियों को नाचते-गाते देखते सुनते, हम पले-बढ़े...
हमने किसी डोर, अदृश्य कंठों और वाद्यों को कभी नहीं ढूंढा...

हम देखते रहे, एक समूचा संसार, बाइस्कोप मे सिमटा हुआ...
कभी नहीं ढूढ़े, कोई प्रमाण, साक्ष्य हमने, उसके मानचित्र पर...

हम शब्दों का मर्म, सूत-सूत कातते रहे...
बुनते रहे, सहूलियत से, स्व-धर्म...
नंगी वास्तविकता को भ्रम पहनाते हुए...
हमने नहीं साधा कभी, किसी ऋतु पर संधान...

हम मे बादलों की थिरकन पर, थिरकता  रहा नृत्य...
पावस और पत्तों की सरसरहाट से हम मे रचते रहे संगीत...
हम सूरज को पश्चिम मे कटती पतंग समझते रहे...
ले आते रहे पेड़ पर अटका चाँद, रात को लूट कर...

हम तारों से दिशा का संज्ञान करते रहे...
और राहों से अनभिज्ञ, अंजान रहे...
हमने स्वप्नों को कभी जटिल नहीं होने दिया...
ना अपने किसी भी स्वांग को कुटिल...

हम देह पर धारते रहे, हथकरघे पर बुना कोमल  'मन'...
एक जरा खोंच पर, जो...
सिलाई-सिलाई उधड़ जाता...

हमारी आँखों ने  अस्वीकार दिया, कुछ भी अनचाहा...
उन कस्बों मे, हम मीठी नींद तान कर सोते...


हम नहीं जागना चाहते अब, किसी अजानी शैय्या  पर...
हम अब नहीं जानना चाहते, मानना कुछ भी...
हम नहीं पहचानते जिसे, हम नहीं-नहीं पहचानते... ... ... !!